उत्तराखण्ड के लोक गायन की किंवदन्ति – नरेन्द्र सिंह नेगी

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उत्तराखण्ड के लब्ध गीतकार, संगीतकार और गायक नरेन्द्र सिंह नेगी एकमात्र ऐसे रचनाधर्मी कलाकार है, जिन्होंने पहली बार गीतों में कविता को प्रतिष्ठित कर लोक संगीत से दूर होते जा रहे बाद्ययंत्रों, ढोल, तुरई, मशकबीन, मोछंग आदि को आंचालिक लोक सम्पदा को पुर्नजीवन देने का काम किया है।
नरेन्द्र के गीतों की कल्पनाशीलता को देखते हुए सुप्रसिद्ध कला समीक्षक और छोटे पर्दे के कलाकार सिद्धार्थकाक और रेणूका सहाणे जब 04 जुलाई 1998 में पौडी पहुँचे तो नरेन्द्र सिंह नेगी के घर पर एक अन्तरंग बातचीत में उन्होंने कहा कि यार नरेन्द्र भाई पौडी जैसे कस्बे में बैठकर इतने वर्षों से क्या कर रहे हो? बम्बई क्यों नहीं चले आते? इस पर नेगी का उत्तर था कि ”मैं बाजार की कीमत पर लेखन का काम नहीं कर सकता। शायद यही वजह है कि नरेन्द्र सिंह नेगी को आज शोहरत के लिए मुकाम पर होना चाहिए था, वह उन्हें नहीं मिल सका जिसके वे स्वाभाविक हकदार हैं।“ इसके बाद भी उनका गीत संगीत आज जन के जीवन को आलादित करता है, इसे वे अपनी पूँजी और सफलता मानते हैं।
नरेन्द्र सिंह नेगी के लोकगीत-संगीत, साधना के चार दशक पूरे हो रहे हैं, इस अवधि में उन्होंने 35 से अधिक आॅडियो कैसेट 10 से अधिक वीडियो एल्वम और कुल 12 आँचलिक फिल्मों में संगीत निर्देशन का काम कर चुके हैं। लोकगीतों पर फुटकर रूप से उनकी 03 पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकी हैं। ”खुचकण्डी“ (1992) को इसका संस्करण भी बाजार में उपलब्ध है। नेगी की अन्य कृतियों में ”गाणियूँ की गंगा स्याणियूँ का समोदर“ पहाड संस्था द्वारा प्रकाशित ”मुट्ठ बोटि कि रख“ के साथ ही हिमालयन कम्पनी द्वारा आँचलिक फिल्मों में गाए गीतों ”तेरी खुद तेरो ख्याल“ नाम से प्रकाशित पुस्तक सी॰डी॰ के साथ 10 हजार प्रतियाँ श्रोताओं को निःशुल्क वितरित की गयी। इस तरह 40 वर्षों के इस सफर में उनके द्वारा लिखित और गाये गये गीतों की संख्या 5 हजार से अधिक होगी, लोक संस्कृति और लेखों की संख्या 05 हजार से ऊपर होगी।
लोक गायक जिन आँचलिक फिल्मों को गीत संगीत दिया उनमें ”फ्योंली“ (1983 गायन), ”घरजंवै“ (1985 गीत-संगीत, गायन), ”बेटी ब्वारी“ (1988 गीत, संगीत, गायन), ”बंटवारू“ (1989 गीत, संगीत, गायन), ”फ्योंली ज्वान ह्वेगि“ (1992 गीत, संगीत, गायन), ”छम घुँघरू“ (गीत, संगीत, गायन), ”जै धारी देवी“ (1997 गीत, संगीत, गायन), ”सतमंगल्या“ (1999 गायन), ”औंसी की रात“ (2004 गीत, संगीत, गायन), “चक्रचाल“ (2006 गीत, संगीत, गायन) ”मेरी गंगा होली मैंमू आॅली“ (2008 गीत, संगीत, गायन) प्रमुख हैं।
लोक गायक नरेन्द्र सिंह नेगी के गीत, संगीत और गायन की विशेषता मौलिकता के साथ, समाप्त होती गढ़वाली बोली के दुर्लब शब्दों को जीवन्त बनाए रखना भी है। काल परिस्थिति के चलते आँचलिक बोली तीज, त्यौहार और ऋतु परम्पराओं को उन्होंने न महज आॅडियो, वीडियो के रूप में सुरक्षित रखा है वरन अपने कर्णप्रिय संगीत और सुर से लोक संस्कृति के संरक्षण में एक युगान्तकारी प्रयास किया है।
लोक गायक पर कई बार कला समीक्षक यह कह कर हमला करते हुए कहते हैं कि उन्होंने अधिकतर विरह और महिलाओं को केन्द्र बिन्दु मान कर गीत लिखे हैं। इस पर स्वयं लोक गायक नेगी कहते हैं कि ”कवि के सामने सर्वाधिक अपील करने वाले जो क्षण और दृश्य होते हैं उन्हें वह अपने गीतों में उतारता है। पहाड में महिलाएँ सामाजिक आर्थिक एवं सांस्कृतिक जीवन की धुरी रही है, और राज्य बनने के बाद भी इन्हें सर्वाधिक कष्टों से जूझना पड रहा है, तो स्वाभाविक रूप से मेरी गीत रचना में महिलाएँ केन्द्र में रहेंगी ही, जब तक उनके कष्ट रहेंगे।“
लोक गायक ने अपनी गीत, संगीत की यात्रा में एक पक्षीय गीत नहीं रखे वरन सभी ऋतुओं समाज के ज्वलंत प्रश्नों जैसे पलायन, पर्यावरण संरक्षण, जल संरक्षण, क्षेत्रीयता और जातिवाद जैसी कुरीतियों के विरूद्ध, श्रंृगार और करूणा के साथ जन आन्दोलन के दौर में गीतों की रचना कर बहुआयामी प्रतिभा का परिचय दिया है। उत्तराखण्ड में मोहन उप्रेती के बाद नरेन्द्र सिंह नेगी ने ही गढ़वाली, जौनसारी गीतों को आधुनिक आवश्यकतानुसार लिपि और स्वरबद्ध कर उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर मंचो के माध्यम से देश-विदेश में प्रवासियों तक पहुँचाने का अविस्मरणीय कार्य किया है। कहना अनुचित न होगा कि गायक नरेन्द्र सिंह नेगी ने अपने गीतों के माध्यम से पहाडी शब्द से परहेज करने वाले प्रवासियों के बीच न सिर्फ गीतों को पहुँचाया वरन उनकी जुबान में अपने गीतों को गुनगुनाने के लिए मजबूर कर गढ़वाली-कुमाऊनी से हटकर एक उत्तराखण्डी होने की पहचान देने में भी ऐतिहासिक कार्य किया है। परिणामतः आज उत्तराखण्ड में विशेषकर गढ़वाल आँचल में स्कूल, कालेज या फिर सार्वजनिक कार्यक्रम ऐसा नहीं जहाँ नेगी के गीत न सुनाई देते हैं। नेगी के गीतों में भले ही राॅक एण्ड राॅल पर मस्ती के साथ नाचने की छूट न हो किन्तु शोद्धार्थियों के समक्ष वह सवाल खडे कर विश्लेषण करने को बाध्य अवश्य करते हैं।
इस विषय में जर्मनी के हैम्स वर्ग विश्व विद्यालय में कार्यरत बिलियम बौसैक्स कहते हैं कि वह एकान्त के क्षणों में या तो जागर या फिर नरेन्द्र सिंह नेगी के गीतो को गाकर पहाड की जिन्दगियों के मर्म को जानने का प्रयास करते हैं। वर्ष अप्रैल 2005 में एक भेंट में उन्होंने बताया कि उन्होंने विश्व के अधिकांश लोकगीत और संगीतों को सुना और जाना है किन्तु जितनी विविधता और बौद्धिकता सम्पदा उत्तराखण्ड विशेषकर नेगी के गीतों में है, अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिलती है। लेखक के साथ हुई इस बातचीत में विलियम बौसैक्स (मानव विज्ञानी) बीच-बीच में नेगी द्वारा नन्दाराज जात पर गाए गीतों को सुनकर उनका सिलसिलेवार विश्लेषण करते।
उत्तराखण्ड में गढ़वाली, कुमाऊँनी गीतों को एक मंच में लाकर गिर्दा और नेगी की जुगलबन्दी और मंच के कार्यक्रमों में जनता से सीधे सवाल-जवाब का एक नया प्रयोग था। इस जुगलबन्दी के बाद दोेनों क्षेत्रों के गीत, संगीत को आम उत्तराखण्डी के लिए जिस सर्वमान्य शब्दावली का निर्माण नरेन्द्र और गिर्दा ने किया उससे दोनों गीतकारों की स्वीकार्यता दोनों अंचलों के श्रोताओं के बीच बढी। फलस्वरूप गढ़वाल- कुमाऊँ के संस्कृतिकर्मी एक दूसरे के न सिर्फ नजदीक आए वरन दोनों क्षेत्रों रंगकर्मियों और बुद्धिजीवियों के बीच आपसी समझ भी पहले से अधिक विकसित हुई।
लोक गायक नरेन्द्र सिंह नेगी आयरलैण्ड के गीत एवं संगीतकार बाब गेल्डोफ के बीच दोनों का अध्ययन करने के बाद मैंने पाया कि दोनों के जीवन में काफी हद तक समानताएँ हैं। दोनों ने ही घोर आर्थिक कष्टों के बीच जीवन यात्रा को प्रारम्भ की। गल्डोफ का जिस तरह सामाजिक मूल्यों पर कहना है कि अगर कोई लडखडा कर नीचे गिरा है, और उसे हम उठाने के लिए अपना हाथ नहीं बढा सकते तो हमें खुद को इंसान कहने का कोई हक नहीं है। ठीक इसी तरह लोक गायक नरेन्द्र सिंह नेगी का मानना रहा है कि यदि हमें अपनी बोली-भाषा वेषभूषा में पिछडने की बू झलकती है तो हम लोक भाषा और कलाओं के संरक्षण, सम्वर्द्धन के हकदार भी नहीं हैं। उन्होंने सदैव नई पीढी के रचनाकारों और गायकों को कन्दराओं से उठाकर मंच तक पहुँचाने में जो अतुलनीय कार्य किया है वह उनके द्वारा लोक संगीत और युवा गायकों को किसी सहारा देने से कम नहीं था।
प्रीतम भर्तवाण, मीना राणा, मंजू सुन्द्रियाल, अनिल बिष्ट, ज्योति नैनवाल, दरवान नैथवाल, किशन महिपाल, कुमाऊँ से सपना आर्य, राजलक्ष्मी, दीपा पन्त आदि ऐसे नाम हैं जिन्हें नरेन्द्र सिंह नेगी ने अपने साथ मंच पर लाकर मंचीय शैली से भी अवगत कराया। अनिल बिष्ट को कोरियोग्राफी में जो मुकाम आज हासिल हुआ है, उसके पीछे नरेन्द्र की बहुत बडी भूमिका है।
गायक नरेन्द्र के व्यक्तित्व का कैनवास उनके सामाजिक, सांस्कृतिक सरोकारों के प्रति समर्पण और प्रतिबद्धता को व्यक्त करता है। नई पीढी के लोक गायकों को प्रोत्साहित करने के उपरान्त उन्होंने नई पीढी के कवियों मदन मोहन ढुकलान, वीरेन्द्र पंवार, ओम प्रकाश सेमवाल आदि अनेक ऐसे कवि हैं, जिनके लिए वे राॅल माॅडल रहे हैं। इसके साथ ही इतिहास के काल खण्ड में विलुप्त हो चुके कवियों चक्रधर बहुगुणा, हर्षपुरी, भगवती चरण निर्माेही, जीत सिंह नेगी, बृजराज सिंह नेगी, कन्हैया लाल डंडरियाल आदि कवियों की रचनाओं को नया स्वरूप प्रदान करते हुए अपने गीतों के माध्यम से प्रस्तुत कर उन्होंने पुर्खों की सांस्कृतिक धरोहर से नई पीढी को अवगत कराने का भी प्रशंसनीय कार्य किया है।
गायक नरेन्द्र सिंह नेगी का चालीस वर्षों के सफर में कई उतार-चढाव आए एक तरफ सरकारी नौकरी, परिवार की परवरिश संयुक्त परिवार में साथ नातेदारियों के साथ मधुर सम्बन्ध बनाते हुए उनको निभाना इस पर भी इसी यात्रा के दौरान 03 बहनोइयों का अल्पआयु में निधन के बाद उनके परिवार की जिम्मेदारियों का सहजता से निर्वहन करते हुए लेखन-गायन के क्रम को जारी रखना उनकी असाधारण प्रतिभा का द्योतक ही कहा जायेगा।
नरेन्द्र सिंह नेगी जीवन के 64 बसन्त देखने के बाद उत्तराखण्डी साहित्य (गढ़वाली-कुमाऊनी) को एक गम्भीर शोधकर्ता की दृष्टि से देखते हैं। उनका स्पष्ट मानना है कि आज इण्टरनेट के दौर में सीडी या वीडियो एल्वम युवा गायकों के लिए रोजगार देने में सक्षम नहीं रहे इस लिए उनका मानना है कि इस दिशा में सरकार को चाहिए कि लोक साहित्य और संगीत से जुडे कलाकारों की स्थल रिकार्डिंग जागरी समाज के बीच भी जाकर दुर्लभ लोकगीत गायकों की रिकार्डिंग कर उन्हें निरन्तर रायल्टी रूप देकर आर्थिक रूप से भी मजबूत किया जाना जरूरी है।
गायक नरेन्द्र 20वीं शताब्दी के उतरार्द्ध में एक मात्र ऐसे गायक, कवि, गीतकार, लेखक, संगीतकार और फिल्मकार रहे हैं, जिन्होंने अपनी गीत-संगीत की यात्रा से उत्तराखण्ड की राजनीति, समाज, दर्शन और संस्कृति को पुर्नपरिभाषित करने का मौलिक कार्य किया है। वहीं दूसरी ओर लोक संस्कृति और जनता के प्रति उनका लगाव और प्रतिबद्धता संदेह से परे है। देश के चर्चित लोक गायक और संगीतकार भूपेन हजारिका ने जिस तरह उत्तर पूर्वी राज्यों की जीवन दाहिनी नदी ब्रह्म पुत्र पर गीत रचनाकर पूर्वाेत्तर राज्य की सामाजिक चेतना को राष्ट्रीय जीवन की मुख्य धारा से जोडने का कार्य किया है, उसी के अनुरूप लैटिन अमेरिकी देश कोलम्बिया देश के अश्वेत गायक और संगीतकार पाल राॅबिनसन ने अपने चर्चित गीत ओल मैन रिवर  के माध्यम से अश्वेत लोगों की तकलीफों और संघर्षों को आवाज दी ठीक यही कार्य गायक नरेन्द्र सिंह नेगी ने जीवन एवं मोक्षदायिनी गंगा और हिमालय की सुरक्षा की गुहार गीतों के माध्यम से कर विशाल बाँध परियोजनाओं के दर्द को भी अपनी आवाज दी है। उन्होंने विस्थापन से पहाड के भूगोल और संस्कृति के बदलने पर जन भावनाओं को अपनी वाणी देकर उसका प्रतिकार भी किया है।
सार रूप में कहा जा सकता है कि नरेन्द्र नेगी का गीत-संगीत देश के लोकधर्मी कलाकार गायक भूपेन हजारिका और कोलम्बिया के विख्यात गीतकार पाल राॅबिनसन की तरह अपने समाज में जन-जन की आवाज बनने में भी सफल हुए हैं। यहाँ एक बात तीनों कलाकारों के कार्यों के मूल्यांकन के बाद उभरती है कि भूपेन और पाॅल राॅबिनसन ने राजनीतिक क्षेत्र में प्रवेश कर जन आन्दोलनों की धार को कमजोर किया, वहीं नरेन्द्र ने राजनैतिक दलों से एक निश्चित दूरी बनाते हुए जनपक्ष के साथ खडे होकर जो कुछ लिखा और गाया उसके चलते वे हमेशा विवादों से दूर रहने में सफल हुए हैं।
उत्तराखण्ड के युवा गायकों और संगीतकारों को उनका एक ही सन्देश रहा कि शोध और अध्ययन करने के उपरान्त ही वे इसे पेशे के रूप में अपनाएँ। ऐसा करके ही हम लोकगीतों और संस्कृति का संरक्षण करने के साथ इसे रोजगार से भी जोड सके तो यह उनकी उपलब्धि होगी।
उत्तराखण्ड में भूपेन हजारिका के तहत लोक संगीत को राष्ट्रीय फलक तक पहुँचाने वाले नरेन्द्र सिंह नेगी जिन्हें प्यार-स्नेह से उनके साथी ”नरू“ कहकर बुलाते हैं। यह कालजयी कलाकार अपनी प्रयोगवादी रचनाधर्मिता के चलते पहाड के जन जीवन में लोक संगीत की एक किवदन्ति बन चुके हैं। हमारे लिए नरेन्द्र एक चलते फिरते लोक संग्रहालय से कम नहीं हैं। जर्मनी के प्रख्यात कवि ब्रेख्त के सिद्धान्त को मानते हुए नरेन्द्र ने न केवल करूणा और श्रृंगार के गीत लिखे वरन समय और समाज की आवश्यकतानुसार अन्याय, शोषण और भ्रष्टाचार के विरूद्ध जनता की मूकवाणी को अपनी आवाज दी।
लोक गायक नरेन्द्र सिंह नेगी ने ”नौछमी नारेण“ और ”अब कथगा खैल्यो“ वीडियो एल्वमों के माध्यम से सरकार की जन विरोधी नीतियों और भ्रष्टाचार पर जिस तरह से निशाना साधा उसे हमारी सडी-गली राजनीति पचा नहीं सकी परिणामतः सरकार के स्तर पर दोनों प्रमुख राजनीतिक दलों ने उनसे दूरी बनाए रखी। किन्तु आज जनता के बीच अपनी कविता और कंठ के माध्यम से घर चुके नरेन्द्र सिंह नेगी को जनता ने गढ़ गौरव सम्मान (1995 प्रवासी चण्डीगढ), ओ॰एन॰जी॰सी द्वारा हिमगिरी गौरव सम्मान (1995), उत्तराखण्ड शोध संस्थान (लखनऊ 1995), उत्तराखण्ड लोक मंच मसूरी (1997), आकाशवाणी लखनऊ सम्मान (1998), मोहन उप्रेती सम्मान (2002 अल्मोडा) सहित देश के प्रमुख नगरों में नागरिक अभिनन्दन सहित विदेश में ओमान, दुबई, अमेरिका, कनाडा और मैलबोर्न (अल्मोडा) में प्रवासी उत्तराखण्डियों द्वारा अपमानित कर जिस तरह इस लोक गायक को बिना बाद्ययन्त्रों के भी सामने बिठाकर सुना गया। वह सही अर्थों में सरकारी सम्मान पुरस्कार समारोह से कहीं अधिक सम्मान और सार्थकता को व्यक्त करता है।
इस कालजयी व्यक्तित्व के द्वारा सामाजिक, सांस्कृतिक संचेतना प्रयासों के प्रति पर्वतीय समाज आशा भरी दृष्टि से उन्हें अपना साधुवाद देता है।
(डाॅ॰ योगेश धस्माना)
मो॰: 9456706323

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Social researcher, Traveller, and Writer played diverse roles in the development sector, with a strong dedication for preservation of cultural heritage. Sharing my experince and insights on this website.